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बिल्कुल असामान्य है शेख हसीना का तख्ता पलट

अवधेश कुमार

बांग्लादेश का संपूर्ण घटनाक्रम भयभीत करने वाला है। हमने पूरा अराजकता का वातावरण देखा जिसकी कल्पना नहीं की गई थी। प्रधानमंत्री आवास से लेकर कार्यालय संसद भवन सचिवालय सब पर हुआ कब्जा, लूट और अराजकता का आलम बांग्लादेश की दुर्दशा बताने के लिए पर्याप्त था। देश में अत्यंत संघर्ष के बाद संसदीय लोकतंत्र पटरी पर स्थापित होता लग रहा था वहां कुछ घंटे के अंदर ऐसा लग है जैसे सब कुछ पुरानी अवस्था में जा रहा हो। बांग्लादेश आगे किस दिशा में मुड़ेगा अभी कहना कठिन है। किंतु आरक्षण विरोधी आंदोलन की आग में शेख हसीना की प्रधानमंत्री कुर्सी चली जाएगी और उन्हें विवश होकर देश छोड़ना पड़ेगा इसकी कल्पना एक दिन पहले तक नहीं की गई थी। प्रश्न है कि ऐसा हुआ क्यों? आरक्षण विरोधी आंदोलन सामान्य नहीं था। पहले 56% आरक्षण था, जिनमें 30% स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए, 5% धार्मिक अल्पसंख्यकों, 10% महिलाओं ,10% पिछड़े जिलों और एक प्रतिशत दिव्यांगों के लिए था । शेख हसीना ने ही 2018 में इस आरक्षण व्यवस्था को खत्म किया। तो उनको आरक्षण का खलनायक नहीं माना जा सकता। हाई कोर्ट ने फिर इस आरक्षण को लागू किया और उसके विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुआ। किंतु उच्चतम न्यायालय ने इस आदेश को निरस्त कर दिया। उसके बाद बांग्लादेश में केवल 7% आरक्षण बचा जिनमें स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए 5% एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए दो प्रतिशत शामिल हैं। यानी 93% आरक्षण से बाहर था। शेख हसीना ने आंदोलनकारियों से आंदोलन वापस लेने की अपील की। ऐसा लगा भी कि आंदोलन अब समाप्त हो गया। अचानक आंदोलनकारी छात्र समूह ने शेख हसीना को सत्ता से हटाने का आह्वान करते हुए 6 अगस्त को ढाका मार्च की घोषणा कर दी। फिर ऐलान हुआ कि मार्च 5 अगस्त कोई होगा और हजारों की संख्या में हिंसा, तोड़फोड़ करते आगे बढ़ गया। कह सकते हैं कि जितनी संख्या में आंदोलन के दौरान लोग मारे उसके विरुद्ध गुस्सा था । सरकार ने 157 लोगों के मरने मरना स्वीकार किया तथा उनकी जांच के लिए आयोग की भी घोषणा की। यह भी कहा गया कि मृतकों के परिवारों के साथ न्याय होगा । बावजूद मामला यहां तक कैसे पहुंचा और एक दिन 4 अगस्त में 98 से ज्यादा लोग कैसे मारे गए?  इस आंदोलन का सच समझने के लिए सबसे पहले शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने के बाद के दृश्यों पर गहराई से दृष्टि डालने की आवश्यकता है। जीत का ऐसा जश्न मनाया जा रहा था मानो बांग्लादेश को दूसरी आजादी मिली है। फादर ऑफ द नेशन शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्ति तोड़ी जा रही थी तो दूसरी ओर शेख मुजीब संग्रहालय में आग लगा दिया गया। पूरे आंदोलन में 300 लोगों के मारे जाने के विरुद्ध गुस्सा समझ में आ सकता है पर पाकिस्तान के शिकंजे से मुक्ति दिलाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान को दुश्मन या खलनायक मानकर व्यवहार करने वाले कौन हो सकते हैं? गोली चलाने का आदेश शेख हसीना ने नहीं दिया। पुलिस ने शेख हसीना का साथ क्यों छोड़ा? पुलिस प्रमुख की ओर से कहा गया कि हम संभालने में सक्षम नहीं है। उसके बाद सेना को उतारा गया और सेना ने विशेष कुछ किया हो ऐसा लगा ही नहीं। सेना प्रमुख वकार उज जमां ने ऐलान किया कि औनरेबल प्राइम मिनिस्टर ने इस्तीफा दे दिया है, सारी जिम्मेवारी हमारे हाथों हैं हम अंतरिम सरकार बनाएंगे। सेना प्रमुख ने शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग को छोड़कर सभी पार्टियों की बैठक बुलाई जिसमें उनके अनुसार अंतरिम सरकार बनाने पर सहमति बनी। इसके बाद सेना के जवानों द्वारा विजय मुद्रा में फायर करने के वीडियो सामने आने लगे। जहां-जहां से शेख हसीना की तस्वीर हटती वहां सुरक्षा में लगे जवान खुशियां मनाते।  कुल मिलाकर पूरा तख्ता पलट सामान्य घटना नहीं है। इसे किसी लोकतांत्रिक आंदोलन की परिणति नहीं माना जा सकता। शेख हसीना 2009 से लगातार चुनाव जीतकर शासन में आतीं रहीं। वह अलोकप्रिय या तानाशाह होतीं तो मतदान में वोट कैसे मिलता। कहा जा रहा है कि वर्तमान यानी 2024 संसदीय चुनाव का सभी पार्टियों ने बहिष्कार किया इसलिए लोगों के पास एक ही विकल्प था। 2014 और 2019 में क्या था? आप पूरे आंदोलन में ध्यान से शामिल लोगों के बयान देखेंगे तो कुछ बातें स्पष्ट हो जायेंगी । मसलन, कोई इसमें इस्लामी शासन की बात कर रहा है, कोई कह रहा है कि हमें कॉर्पोरेट अर्थव्यवस्था नहीं चाहिए शेख हसीना ने देश को कॉर्पोरेट के हवाले कर दिया है……। कई विश्लेषक बता रहे हैं कि शेख हसीना का जमीन से संपर्क कट गया था, महंगाई बढ़ गई थी , मध्यम वर्ग कठिनाई में था, नौकरियां मिल नहीं रही थी और वह समझ नहीं पाई। बांग्लादेश के आर्थिक आंकड़ों को विश्व मानकों पर इस समय विकासशील देशों की कतार में संतोषजनक माना जाता है। हसीना पहली प्रधानमंत्री थीं जिन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाकर विश्व में देश की छवि बदली, शिक्षा में सुधार किया, विदेश नीति में बांग्लादेश को अमेरिका या चीन किसी के पाले में जाने से बचाया, सेना को न निष्प्रभावी किया न ज्यादा प्रभावी होने दिया, कट्टरपंथियों, इस्लामवादियों , जिहादी एवं अन्य उग्रवादी समूहों को नियंत्रित कर बांग्लादेश में शांति और स्थिरता बनाए रखने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की, पाकिस्तान की साजिशों को सफल नहीं होने दिया तथा अमेरिका के दबाव को भी अस्वीकार किया। ये नीतियां एक साथ देश के अंदर और बाहर उनके विरोधियों – दुश्मनों की संख्या बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।  उनके विरुद्ध पांच तरह की शक्तियां सक्रिय थीं। पाकिस्तान तथा देश के अंदर कट्टरपंथी जिहादी समूह,  वैश्विक वाम इकोसिस्टम, अमेरिका और चीन। पाकिस्तान, जिसके अंदर टीस बनी हुई है कि शेख हसीना के पिता ने विभाजन करा कर बांग्लादेश को स्वतंत्र किया।  हमेशा पाकिस्तान वहां बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी या बीएनपी, जमाते इस्लामी, हिफाजत ए इस्लाम आदि संगठनों के साथ मिलकर बांग्लादेश को अस्थिर करने तथा शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद उन्हें लगातार हटाने की कोशिशें करता है। पूरे आंदोलन के दौरान सबसे ज्यादा सक्रियता, वक्तव्य और बहस पाकिस्तान से सामने आये। वहां के पूर्व राजनयिक,सैन्य अधिकारी ,विश्लेषक आदि स्पष्ट कह रहे थे कि पाकिस्तान पूरी भूमिका निभा रहा है। बीएनपी, जमात ए इस्लामी, इसका छात्र संगठन इस्लामी छात्र शिविर आदि आंदोलन की आड़ में पूरे देश में हिंसा व आगजनी कर रहे थे उससे साफ दिखता था कि भारी संख्या में प्रशिक्षित लोग लगे हैं। पाकिस्तान ने इन सबको प्रशिक्षित किया और समय पर इन्होंने हिंसा, आगजनी से अपना और पाकिस्तान का उद्देश्य पूरा करने में भूमिका निभाई। शेख हसीना का यह बयान कि आंदोलन के नाम पर आतंकवादी कट्टरपंथी तत्व हिंसा कर रहे हैं गलत नहीं था। वैश्विक लेफ्ट इकोसिस्टम भारत की तरह ही बांग्लादेश में भी सक्रिय हैं और वह छात्रों नवजवानों के बीच शेख हसीना शासन के विरुद्ध असंतोष पैदा करने की लंबे समय से भूमिका निभा रहा था। आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया के माध्यम से कट्टरपंथी जेहादी , पाकिस्तान तथा वामपंथी इकोसिस्टम इतना सक्रिय था कि हमारे सामने केवल एक पक्ष ही आता रहा। अमेरिका हसीना से कितना परेशान था इसका अनुमान इसी से लगाइए कि उनकी पार्टी अवामी लीग के सदस्यों के लिए उसने वीजा पर रोक लगा दी तथा मांग किया कि हसीना त्यागपत्र दें और चुनाव के पहले अंतरिम सरकार बनाई जाए। आंदोलन के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने मांग की कि सरकार उन्हें हिंसा की जांच करने दे। सामान्यतय: ऐसा नहीं होता। हालांकि शेख हसीना ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र जांच करने के लिए स्वतंत्र है। पिछले दिनों शेख हसीना ने बयान दिया था कि अमेरिका बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ भाग को मिलाकर इस्ट तिमोर जैसा अपने प्रभाव वाला ईसाई  देश बनाना चाहता है। उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका के एक व्यक्ति उनसे मिले थे और कहा कि आप हमारा साइन अड्डा बनने दीजिए फिर आपके सामने समस्या नहीं आएगी। जो बिडेन प्रशासन हसीना के विरुद्ध सक्रिय था। चीन की समस्या थी कि शेख हसीना अन्य देशों की तरह उसके आर्थिक चंगुल में नहीं फंसी। हालांकि अंततः भारत और चीन एक दूसरे के विरुद्ध होते हुए भी चुनाव के पूर्व अमेरिकी दबावों को सफल नहीं होने दिया। तब से अमेरिका और वैश्विक वाम इकोसिस्टम यही प्रचार करता रहा कि चुनाव धांधली कराकर जीता गया है। यानी शेख हसीना की सरकार लोकतांत्रिक तरीके से नहीं जबरन निर्वाचित हुई है। तो शेख हसीना एक साथ कट्टरपंथी जेहादी, पाकिस्तान समर्थक तत्व , अमेरिका एवं वाम इकोसिस्टम के विरुद्ध थी जबकि बांग्लादेश के अंदर उनके समर्थक आम समाज से लेकर सत्ता के सभी अंगों में हैं। शेख हसीना के शासन को कई बार उखाड़ फेंकने की कोशिश हुई और इसके षड्यंत्र में कट्टरपंथी पकड़े गए उन्हें सजा मिली। वे बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के भी विरुद्ध पाकिस्तान का साथ दे रहे थे और इन्हें ही शेख हसीना ने रजाकर कहा। जरा सोचिए, जिन लोगों ने अपनी बलि चढ़ा कर पाकिस्तान की तानाशाही , निर्दयता से बांग्लादेश को मुक्ति दिलाई उनके बच्चों को आरक्षण देने या उन्हें सम्मान देने का विरोध कौन कर सकता है? आप देखेंगे कि पूरे आंदोलन के दौरान अवामी लीग के सदस्यों पर हमले हुए , उनके घर जलाए गए, यहां तक कि चुन-चुन कर अल्पसंख्यक हिंदुओं को निशाना बनाया गया, आज भी बनाए जा रहे हैं। अगर इसे कोई सरकार के विरुद्ध स्वाभाविक असंतोष की परिणति मानता है तो उसकी बुद्धि पर तरस आएगी। इस समय अमेरिका भले खुश हो ,लेकिन आने वाले समय में इस्लामवादी कट्टरपंथी तत्वों तथा पाकिस्तान की भूमिका जबरदस्त चुनौती बनेगी। भारत के लिए नए सिरे से चुनौती खड़ी हुई है जिनका सामना करने के लिए हमें लंबी तैयारी करनी पड़ेगी।

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