Articles مضامین

बिहार में आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट पर भी विवाद

अवधेश कुमार


बिहारविधानसभा में आरक्षण की सीमा 75 प्रतिशत करने का प्रस्ताव पारित हो चुका है। इससे ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने आरक्षण सीमा को बढ़ाने का आधार बनाने के लिए ही जाति आधारित गणना कराई। यह प्रस्ताव जाति आधारित गणना के दूसरे भाग यानी जाति आधारित आर्थिक आंकड़ों के साथ पेश किया गया। कायदे से 2 अक्टूबर को जाति आधारित गणना रिपोर्ट सामने लाने के साथ ही सामाजिक आर्थिक आंकड़ा भी आ जाना चाहिए था।  किसी भी दृष्टि से रिपोर्ट के दोनों भाग को सार्वजनिक करने के बीच इतने अंतराल का ईमानदार और नैतिक कारण नहीं हो सकता। जाति आधारित गणना के आंकड़े पहले दिन से ही संदेह के घेरे में आ गए। पूरे प्रदेश के गांवों और मोहल्लों से लोग सामने आकर बता रहे हैं कि उनके पास कोई गणना करने आया ही नहीं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके उत्तर में प्रश्न उठाते हैं कि जब अंग्रेजों के बाद जातीय गणना हुई ही नहीं तो कोई कैसे कह रहा है कि किसी जाति का आंकड़ा ज्यादा और किसी का कम कर दिया गया है? मुख्यमंत्री को खंडन करने की बजाय लाखों की संख्या में जो लोग अपने यहां गणना न होने की बात कह रहे हैं उनका उत्तर देना चाहिए। इतनी भारी संख्या में लोगों की आवाज सुनने के बाद कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार करेगा  कि संपूर्ण सर्वेक्षण की बजाय गणना रिपोर्ट मुख्यतः कागजी स्तर पर तैयार हुआ। तो फिर इस आर्थिक आंकड़े को कैसे सही मान लिया जाए?  इस रिपोर्ट को स्वीकार किया जाए तो बिहार से ज्यादा बुरी सामाजिक आर्थिक दशा किसी प्रदेश की नहीं होगी। इसके अनुसार प्रदेश के 34.13 प्रतिशत परिवार गरीब हैं जिनकी मासिक आय 6 हजार रुपये या उससे कम है। इतनी बड़ी संख्या का गरीब होना हर मानक पर असामान्य स्थिति का परिचायक है।  गणना के अनुसार राज्य में परिवारों की कुल संख्या 2 करोड़ 76 लाख 68 हजार 930 है, जिसमें  6000 रुपए से 10 हजार रुपए तक की मासिक आय वाले परिवारों की संख्या 81 लाख 91 हजार 390 है यानी 29.61 प्रतिशत है। यानी राज्य की 63 प्रतिशत से ज्यादा आबादी की आय10 हजार रुपए से कम है। सिर्फ 3.9 प्रतिशत या 10 लाख 79 हजार 466 परिवार ही 50 हजार से अधिक अर्जित करते हैं। बिहार के लोगों की वित्तीय स्थिति इतनी बुरी है तो रिपोर्ट इसे गरीबों और कंगालों का राज्य साबित करता है। क्या वाकई बिहार के लोग इतनी ही वित्तीय दुर्दशा के शिकार हैं?  ध्यान रखिए, केंद्र सरकार द्वारा वार्षिक 6000 की किसान सम्मन निधि, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, महिलाओं को विशेष भत्ता, छात्राओं को दिए जाने वाले रकम आदि सभी इसमें शामिल है। समाज के निचले तबके के लिए मनरेगा के 100 दिन रोजगार के साथ-साथ राज्य के रोजगार कार्यक्रमों की भी आय इनमें सम्मिलित है। इसके बावजूद इतनी बड़ी संख्या अगर 6000 से नीचे की आमदनी में जी रही है तो इसका अर्थ क्या है? यह रिपोर्ट नीतीश सरकार को ही कठघरे में खड़ा करती है। केवल आय ही नीतीश सरकार के लिए शर्म का विषय नहीं है। इसमें केवल 36.76  प्रतिशत यानी 1 करोड़ एक लाख 72 हजार 126 परिवारों के पास ही पक्का मकान बताया गया है। इन पक्का मकानों में भी  22.37 प्रतिशत केवल एक कमरे वाले हैं। खपरैल या टीन की छत वाले 26.5 प्रतिशत तथा झोपड़ी वालों की संख्या 14.09 प्रतिशत है। इसके अनुसार लगभग 50 प्रतिशत परिवारों को हम मकान वाला मान ही नहीं सकते। तो अभियान की तरह चलाए जा रहे प्रधानमंत्री आवास योजना का क्या हुआ? ये आंकड़े ही नीतीश कुमार के सुशासन बाबू के विशेषण को ध्वस्त कर देते हैं। जब बिहार के लोगों की बड़ी संख्या यह मानती नहीं कि जमीन पर गणना हुई है तो साफ है कि ये आंकड़े भी कृत्रिम हैं। लेकिन  कोई सरकार अपने को ही असफल क्यों साबित करेगी? इस प्रश्न का शत- प्रतिशत स्वीकार्य उत्तर तलाशना मुश्किल है। इस रिपोर्ट के साथ नीतीश कुमार ने फिर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर दी। पिछले काफी समय से नीतीश और उनकी जद यू विशेष राज्य की मांग नहीं उठा रही थी।  तो क्या इन आंकड़ों को विशेष राज्य की मांग को बल देने के लिए तैयार किया गया? बिहार की राजनीति पर नजर रखने वालों का मानना है कि इस समय सत्ता का केंद्र लालू यादव का परिवार है और उन्हीं की सोच एवं चाहत के अनुरुप प्रशासन भूमिका निभाता है।  लालू यादव और तेजस्वी यादव के रणनीतिकार अपनी राजनीति की दृष्टि से हर वह काम करते हैं जिनसे नीतीश की छवि कमजोर हो तथा भविष्य में अकेले राजद के सत्तासीन होने का आधार बने। जाति आधारित गणना में यादवों और मुसलमानों की आबादी उनके एमवाई समीकरण को सबसे ऊपर ला देता है। इसके समानांतर नीतीश का सामाजिक समीकरण कहीं ठहरता नहीं। रिपोर्ट के दूसरे भाग से नीतीश विफल मुख्यमंत्री साबित होते हैं तथा विपक्षी भाजपा भी कठघरे में खड़ा होती है क्योंकि सरकार में वह शामिल थी। तो नीतीश कुमार चाहे जाति आधारित गणना के लिए अपनी पीठ थपथपाएं यह उनकी राजनीति के अंत का दस्तावेज बनने वाला है।  मोटा- मोटी 17 वर्ष तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद केवल सात प्रतिशत जनसंख्या ही ग्रेजुएट या उससे ऊपर की शैक्षणिक योग्यता रखता है तो ऐसे व्यक्ति के हाथों नेतृत्व का कोई आधार नहीं बनता। यही नहीं 9.19 प्रतिशत ने ही 11वीं और 12वीं तक पढ़ाई की है। 22.67 प्रतिशत ने 1 से 5 तक, 14.33 प्रतिशत ने कक्षा 6 से 8 तक तथा 14.7 1% ने 9वीं और 10वीं की पढ़ाई  की है। इस तरह कुल 42 प्रतिशत आबादी की योग्यता दसवीं या उससे कम है। तो इस रिपोर्ट के साथ सबसे ज्यादा प्रश्नों की बौछाड़ नीतीश कुमार पर ही होने वाली है। किंतु यह रिपोर्ट बिहार की वास्तविक स्थिति का चित्रण नहीं है। राजधानी पटना प्रतियोगिता परीक्षाओं में कोचिंग का महत्वपूर्ण केंद्र है और लगभग सभी प्रमुख शहरों में आपको कोचिंग सेंटर छात्र-छात्राओं से भरे पड़े मिलेंगे। केवल बिहार नहीं केंद्रीय सिविल सेवा से  हिंदी भाषी राज्यों की प्रतियोगिताओं में बिहार की छात्र-छात्राएं महत्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त कर रही है। इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी बिहार की छात्र छात्राएं अन्य कई राज्यों की तुलना में ज्यादा संख्या में उत्तीर्ण हो रहे हैं। ऐसे अनेक प्रमाण है जिनसे ये आंकड़े गलत साबित हो जाते हैं। यह रिपोर्ट बताता है कि बिहार में केवल 1.3 प्रतिशत आबादी के पास ही इंटरनेट है। पिछले वर्ष ट्राई ने बताया था कि बिहार में लगभग 56% लोगों के पास मोबाइल फोन हैं। उस आंकड़े के आधार पर भी नीतीश सरकार की यह रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा साबित होती है । गांवों से शहरों तक हाथों में मोबाइल उसी तरह दिखेगा जैसे अन्य राज्यों में। बस, टेंपों, टैक्सी और यहां तक कि रिक्शा पर भी आप मोबाइल से भुगतान करते देख सकते हैं। सभी को पता है कि दलितों में गरीबी सबसे ज्यादा है तथा सामान्य जाति या सवर्णों में भी भारी संख्या में गरीब है। इनका अलग-अलग आंकड़ा देकर आप रिपोर्ट को सर्वेक्षण आधारित साबित करने की कोशिश करें, सच्चाई जानने वाले बताते हैं कि इसके पीछे भी राजनीतिक रणनीति है। सामान्य जातियों के साथ दलितों का एक बड़ा वर्ग नीतीश कुमार के विरुद्ध है। उनके कारण ही भाजपा को गठबंधन सरकार में हुए उपचुनाव में सवर्ण विरोध का सामना करना पड़ा था और वो राजद के साथ आए थे। सवर्ण की प्रमुख जातियां विशेषकर भूमिहारों में 25 प्रतिशत से ज्यादा गरीबी बताकर यह संदेश देने की कोशिश है कि हम आपके विरोधी नहीं है। अंग्रेजी शासन के बाद जातीय गणना और उसके आधार पर आर्थिक सामाजिक आंकड़ा जुटाने की बहु प्रचारित योजना का संकीर्ण राजनीतिक रणनीति का शिकार हो जाना दिल दहलाने वाला है। यह चिंताजनक है कि जाति आंकड़ों ने बिहार के हर समाज में नकारात्मक हलचल पैदा किया और इस आंकड़े ने उसे और बढ़ाया है। यह सबका दायित्व है कि अपने-अपने स्तर से कुछ मान्य और प्रामाणिक आंकड़े लाकर इस रिपोर्ट की सच्चाई लगातार उद्घाटित करें।


अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -9811027208

Related posts

مؤمن ایک سوراخ سے دو مرتبہ ڈسا نہیں جاتا

Paigam Madre Watan

 ”مسلم شکل شبیہ والا شخص اویسی غدار“

Paigam Madre Watan

The Shaheen Group of Institutions provides specialized education for students from madrasas, fostering academic growth in a culturally sensitive atmosphere.

Paigam Madre Watan

Leave a Comment

türkiye nin en iyi reklam ajansları türkiye nin en iyi ajansları istanbul un en iyi reklam ajansları türkiye nin en ünlü reklam ajansları türkiyenin en büyük reklam ajansları istanbul daki reklam ajansları türkiye nin en büyük reklam ajansları türkiye reklam ajansları en büyük ajanslar