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राजनीतिक विरोध में ऐसी भाषा अंदर से हिला देती है

अवधेश कुमार


राजनीतिक दलों में नेता अपने विरोधियों और प्रतिस्पर्धियों के विरुद्ध जैसे शब्द और विचार प्रकट करने लगे हैं वो किसी भी विवेकशील व्यक्ति को अंदर से हिलाने वाला है। विश्व कप क्रिकेट में भारत की पराजय के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र बनाकर जिस तरह के शब्द और विचार शीर्ष स्तर के नेताओं द्वारा प्रकट किए गए उनकी सभ्य समाज में कल्पना  नहीं की जा सकती। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए पनौती शब्द प्रयोग किया। पनौती का सामान्य अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जो जहां जाएगा वही बंटाधार कराएगा। जैसे हम गांव मोहल्ले में किसी के बारे में बोलते हैं कि अरे, सुबह-सुबह उसका चेहरा देख लिया, पूरा दिन बर्बाद हो गया, वह नहीं होता तो हम सफल होते आदि आदि। राहुल गांधी ने कहा कि अच्छे भले लड़के खेल रहे थे, गया और हरवा दिया। उन्होंने कहा कि पीएम मतलब पनौती मोदी। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शामिल और इस समय राहुल गांधी के रणनीतिकारों में प्रमुख जयराम रमेश ने तो भारतीय टीम की पराजय के बाद ड्रेसिंग रूम में जाकर मुलाकात पर उन्हें मास्टर ऑफ ड्रामा कह दिया। ऐसा करने वाले ये दो ही नहीं थे। नेताओं की एक लंबी सूची है। उदाहरण के लिए बिहार के श्रम संसाधन मंत्री और राजद नेता सुरेंद्र राम ने भी हार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया, राजस्थान के आरएलपी नेता हनुमान बेनिवाल ने प्रधानमंत्री को हार का जनरेटर बता दिया और शिवसेना ( उद्धव गुट) के नेता सांसद संजय राउत ने कहा कि  अगर फाइनल मैच मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम या कोलकाता के ईडन गार्डन में होता तो भारत क्रिकेट का विश्वविजेता बन सकता था। सरदार वल्लभभाई स्टेडियम का नाम बदलकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम बना दिया ताकि वहां वर्ल्ड कप जीतें तो ये संदेश जाए कि नरेंद्र मोदी स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे इसलिए विश्व कप जीता है।   राहुल गांधी की सीमा केवल पनौती शब्द तक सीमित नहीं रही। क्रिकेट मैच के परे उन्होंने पॉकेटमार शब्द प्रयोग किया । कहा कि पाकिटमारो का गैंग होता है जिसमें कुछ लोग आपको बातों में फंसाएंगे और दूसरा पाकिट मार लेगा। तो पाकिटमार गैंग के दो सदस्य हैं, जो आपको बातों में फंसाते हैं और अदाणी आपका पौकेट मार लेगा। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के लिए पाकिटमार जैसे शब्द प्रयोग करना क्या साबित करता है? सामान्यतः किसी भी विवेकशील और गरिमामय समाज में इस तरह के वक्तव्य के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। ऐसे बयानों के विरुद्ध स्वाभाविक ही दूसरा पक्ष भी प्रतिक्रिया देगा।  प्रियंका बाड्रा ने तेलंगाना की जनसभा में कहा कि मुझे याद है, जब 1983 में इंडिया ने क्रिकेट विश्व कप जीता था उस समय इंदिरा जी बहुत खुश थीं, उन्होंने पूरी टीम को चाय के लिए घर बुलाया था। आज इंदिरा जी का जन्मदिन है और हम फिर से विश्व कप जरूर जीतेंगे। जब भारत हार गया तो लोगों ने सोशल मीडिया पर पूछना शुरू कर दिया कि क्या इंदिरा गांधी भी पनौती हैं? प्रश्न है कि क्या राजनीति में दलीय प्रतिस्पर्धा इस स्तर तक पहुंच गया है कि हम किसी के बारे में कुछ भी बोलने के पहले विचार नहीं कर सकते कि इसका देश के माहौल पर क्या असर होगा या हम कैसी परंपरा डाल रहे हैं? इसे कोई भी स्वीकार करेगा कि पनौती शब्द राहुल गांधी के नहीं हो सकते। आमतौर पर गांवों – मोहल्लों में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों से उनका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है।  उनके सलाहकारों और रणनीतिकारों ने ही उन्हें ऐसा बोलने का सुझाव दिया होगा। उन्होंने इसे समझा होगा और तब जाकर बोला होगा। पॉकेटमार शब्द वो जानते हैं किंतु इस प्रकार के उदाहरण का सुझाव भी उन्हें कहीं न कहीं से मिला होगा। इससे पता चलता है कि राहुल गांधी, वर्तमान कांग्रेस में उनके रणनीतिकार, सलाहकार और समर्थक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को लेकर गुस्से और घृणा के उच्चतम अवस्था में पहुंच गए हैं और झुंझलाहट में किसी तरह का शब्द या विचार प्रकट कर सकते हैं। वैसे राहुल गांधी ने 2018 से 2019 लोकसभा चुनाव तक चौकीदार चोर है का नारा भी लगवाया था।  अत्यंत कटु और कठोर शब्द भी व्यंग्य की शैली में कहा जाए तो उसका संदेश ऐसा ही नहीं निकलता। राहुल गांधी पनौती व्यंग्यात्मक  शैली में रखते तो उससे लोग आनंद लेते लेकिन अंदर इतना गुस्सा भरा हुआ है कि बोलने के अंदाज से लगता है मानो आप मानते ही हैं कि नरेंद्र मोदी वाकई ऐसे व्यक्ति हैं जो जहां जाएंगे दुर्भाग्य की शुरुआत हो जाएगी। फिर पाकिटमार तो पूरे कमिटमेंट से बोल रहे थे।  समाचार पत्रों और टीवी में इस पर चर्चा हुई तो कांग्रेस के नेताओं की टिप्पणियां देख लीजिए। वे लिखने लगे कि सारे ज्ञानचंद कहां थे जब मूर्खों का सरदार और न जाने क्या-क्या कहा गया। राहुल गांधी या किसी पार्टी के शीर्ष नेता जो बोलें उनके बचाव में पार्टी न उतरे यह नहीं हो सकता।  प्रधानमंत्री विश्व कप का राजनीतिक उपयोग कर रहे हैं आदि को राजनीति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानने में हर्ज नहीं है। हालांकि इसकी भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अतीत में भी क्रिकेट मैचों में तत्कालीन प्रधानमंत्री उपस्थित रहे हैं।  लेकिन गुस्से और तिलमिलाहट में ऐसी भाषा प्रयोग करना जो अपशब्द की श्रेणी में आए दुर्भाग्यपूर्ण है। भारतीय टीम मैच हार गई थी और प्रधानमंत्री वहां हैं तो देश के नेता के नाते  खिलाड़ियों के बीच जाना,  उनको हौंसला देना तथा खेल को खेल की भावना से लेने के लिए प्रेरित करना उनका स्वाभाविक दायित्व था। जब चंद्रयान-2 विफल होने के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक निराश होकर बैठे थे तब भी प्रधानमंत्री उनसे मिलने गए, गले लगाया, साहस दिया।  तो यह एक अच्छी परंपरा है कि केवल सफलता और विजय पर शाबाशियां और बधाई देने नहीं विफलता और पराजय पर भी आगे बेहतर करने की प्रेरणा देने के लिए देश के नेता उन तक पहुंचते हैं। कई क्रिकेट खिलाड़ियों ने ट्वीट में लिखा कि इससे उनका हौसला बढ़ा। यह भी लिखा कि हम इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे। विदेशों से भी अच्छी प्रतिक्रियायें आईं। आम भारतीय की प्रतिक्रिया भी ऐसी ही है। आप सत्ता में हैं या विपक्ष में, राजनीति देश के लिए है। तो सरकार या विपक्ष की नीतियां, व्यवहार, वक्तव्य सबमें देश ही प्रथम झलकना चाहिए। प्रधानमंत्री का ड्रेसिंगरूम में जाकर खिलाड़ियों से मिलना, गले लगाना ऐसा व्यवहार था जिसकी आलोचना का कोई कारण नहीं है। कांग्रेस जैसी सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी के नेता ड्रामा मास्टर का ड्रामा बताते हैं तो देश स्वीकार नहीं करेगा। यह प्रतिक्रिया आम गरिमा और सभ्यता की परिधि से बाहर का तो था ही, राजनीतिक दृष्टि से भी लाभकारी नहीं हो सकता। आम प्रतिक्रिया इसे लेकर नकारात्मक है। अपनी राजनीति के कारण प्रशंसा नहीं कर सकते तो मौन बेहतर रास्ता था।   खिलाड़ियों से प्रधानमंत्री की मुलाकात और बातचीत में ऐसा कुछ नहीं था जिसे नाटक मान लें। जरा सोचिए, प्रधानमंत्री वहां रहते हुए पराजय के बाद खिलाड़ियों के बीच नहीं जाते तो क्या संदेश निकलता? क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि उन्हें खिलाड़ियों से मिलकर सांत्वना देना चाहिए था। इस तरह प्रधानमंत्री ने देश के नेता के रूप में अपने दायित्व का पालन किया है। प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से लौटे खिलाड़ियों से मिलते हैं जिनमें विजीत, पराजित, मेडल लाने वाले, न लाने वाले सभी शामिल होते हैं। खिलाड़ियों से बात करेंगे तो पता चलेगा कि इससे माहौल काफी बदला है। माहौल ऐसा बना है कि हम जीतें या हारें हमारा असम्मान नहीं होगा। जीतने का हौसला भी इसी से आता है। फिर पॉकेटमार जैसे नीचे स्तर का अपमानजनक शब्द क्या हो सकता है? राजनीति इस स्तर तक नहीं आनी चाहिए कि वक्तव्य और व्यवहार से समाज में भी गुस्सा, घृणा और जुगुप्सा बढ़े। मीडिया में सबसे ज्यादा वक्तव्य व व्यवहार राजनीतिक व्यक्तित्व का ही आता है। उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है। केवल अपने लिए जनमत बनाना नहीं, देश में सकारात्मक – आशाजनक वातावरण बनाए रखना भी नेताओं का दायित्व है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और अन्य संगठनों के प्रति राजनीतिक दलों , नेताओं ,बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों ,पत्रकारों आदि  के एक बड़े समूह के अंदर सोच वैचारिक मतभेद से आगे बढ़कर घृणा और दुश्मनी की सीमा तक पहुंच गई है इसलिए इस ऐसी भाषा निकलती है जो किसी के हित में नहीं। सबके हित में यही है कि मतभेद को विचारधारा, नीतियों और मुद्दों तक रखें, घृणा और जुगुप्सा की मानसिकता से बाहर निकलें तथा व्यक्तिगत हमले बिल्कुल होने ही नहीं चाहिए। लेकिन क्या वर्तमान स्थिति में यह संभव है?

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